dayra

Tuesday 27 September 2011

आशा n Effusion.......

सुनसान  पगडंडियों  पर  वो  चलता  जा  रहा  था  !
बारिश  की  बूंदों  में  भी  वो  जलता  जा  रहा  था !


bahav vicharo ka
विचारो का झगड़ा अब बढता जा रहा था ,
मालूम  नहीं  वो  मंजिल  कितने  दूर  है!

आकाश  तो  है  इस  समंदर  के  ऊपर;
पता  नहीं  जमी  किस  छोर है  !

उम्मीदों  का  दिया  आशाओ से  जिया ;
धेर्य  का  तेल अब घटता जा रहा था !



होसलों  से  जंग जीतते है मालूम है उसे ;
पर  होसला  ही  होसला  खोये जा रहा था !

उड़ने की कला तो  आती  थी उसे ;
पर स्वप्न लोक में कोहरा छाए जा रहा था !

चलते  चलते  गिरता  फिर  उठता  वो ;
लड़खड़ाते  पैर  पर  वो  चलता  जा  रहा  था!

पूरब   की  और  से  क्या  देखता  है  वो ;
एक  बार  फिर  सूरज  उगा  आ  रहा  था !

आशा  जगी  उठा , कमर  कसी   फिर  ;
पोछा आँखों से नीर, भरे तरकश में तीर ;

निशाना  लक्ष्य  पर  वो  साधे  जा  रहा  था !
चलना  ही  जिंदगी  है  वो  गाए  जा  रहा  था !


हार को हराने की योजना बनाये जा रहा था !
कर्म की धरती पर मेहनत के बीज बिछाये जा रहा था !

आँधियों   में  भी  दिए  जलाये  जा  रहा  था !
जीत  जायेगे  हम  गुनगुनाये  जा  रहा  था !



ये  कोई  कविता नहीं , ये एक सच्चाई है ! जिसे मैंने जिया है , जैसे  उम्हड़ता सा ज्वार सागर के शांत तन पर उत्पात मचाता है ! वैसे ही कोई समय का क्षण मेरे मन को द्रवित कर गया था !.........पर फिर वो कभी नहीं आया !!!!! कभी नहीं ...

Monday 19 September 2011

"मिट्टी की खुशबू " SPIRIT


ये  एक  पंछी  की  कहानी  है ,
जिसमे  पानी  ही  पानी  है ;













उसे चाहिए था  बसेरा ;
डालना  था  कही  डेरा  ...फ्रिर्र्र ...

सोया  ना  जागा दिन  भर  वो  भागा;
खोया  ना  पाया  कैसा  अभागा  ;
घर  बनाया  भी  तो  जहाज  पर ;
ना  मालूम  था  उसे  ये  रहता  नहीं  किनारों  पर ,

आज रात आराम फ़रमाया ,
स्वप्न   लोक  में  सेर  कर  आया
जब  जागा , होश  आया   तो ,
अपने  को  सागर  की  गोदी  में  पाया ;
ना  मिट्टी  थी  ना  था   पेड़ो  का  साया ;
ऊपर  सूरज  का  तेज, निचे  समंदर  की  काली  काया ;

बिना  दीवारों  के  पिंजरे  में  अपने  को  पाया
वतन  का  मतलब  अब  उसे  समझ  में  आया ;
करना  तो  थी  उसे  अब  सेर ;
अपना  ना  था  कोई  यहाँ  थे  सब  गैर ;

वो  बारिश   की  रातें  वो  नीम  की  छाया ;
धान  के  खेतों  से  कैसे  दाना  चुग  आया ;
वो  कलरव  मस्ताना   वो  चों   चो  के  झगडे ;
यादों  के  दौर  में  कुछ  दिन  है  गुजरे ;

अब  जहाज  लौटने  लगा 

लौटते  हुए  जहाज  से  जमी  दिखाई  दी ;
ख़ुशी  इतनी  थी  की  दुःख  में  कमी  दिखाई  दी ;
उड़ने  लगा  वो  तेज ,
स्वदेश  की  और  बड़ने  लगा  वो

आज  की  सुबह  की  अलग  ही  रवानी  थी;
सूरज  था  चमकीला ,पूर्वा दीवानी थी;

ओ जंगल सभाएं और चकवे की  कहानी;
ओ ऊँची उड़ाने ओ झरने का पानी;
अब तो कुछ अलग ही स्वाद था !
उन खट्टे अंगूरों का .....मिल गया था  उसको 



वही  मिट्टी की  खुशबू  वही पेड़ो का  साया ;
वतन  का  मतलब  उसे  समझ  में  आया !

आखिर आ ही गया ना .....हाँ हाँ हाँ

Tuesday 6 September 2011

कुछ फूल :THE DEFENDER

बारिश  सर्दी  धुप  कभी ,
गर्मी  आंधी  भूख  कभी ;
काली  रातें   चुप  कभी ,
खुशिया  गम  और  दुःख  कभी ;


सीमाओ  की  रखवाली  पर ,
देश  की  खुशहाली  पर  ,
अरमान  कभी ;
और  जान  कभी;




मातृभूमि   के  चरणों  में  ,
कुछ  पुष्प चढाते   रहते  है !
रंगीन  कभी  संगीन  कभी;


आन  बचाने  की  खातिर,
सीनों  पर  गोली   खाते  है!
बन्दुक  से  निकले  आग  कभी;
एक  से  लड़ते  लाख  कभी;




जीत  कभी  और  हार  कभी;
बलिदान  कभी  सम्मान  कभी;
कभी  शहीद  कहलाते  है !


एक  बात  कभी  फरियाद  कभी,
विजय  का  उल्लास  कभी ;
फिर  जन्मभूमि  की  सेवा  में,
      आना वो  चाहते  है ..!



कभी  पिता  के  सिने  को,
गर्व  से  भर  जाते  है;
कभी  माँ  की  गोदी,
सुनी  कर  जाते  है!


आसमानों   से  उचे  ख्वाब  कभी ;
बलिदान  कभी  सम्मान  कभी ;
कभी  शहीद  कहलाते  है !


नन्हे  बेटे  की  आँखों  से ;
वो  विश्वविजय  बन  जाते  है !
इतिहास   कभी  विश्वास  कभी ;
फिर  ये  प्रकट  हो  जाते  है !



मातृभूमि  के  चरणों  में ;
कुछ  पुष्प  चढाते  रहते  है !


हमको  जीवन  जीना  सिखा  जाते  है ..............!!!


Thursday 1 September 2011

पेड़ बालक : MEMBER OF THE FOREST FAMILY

"VANDEVII" Goddess of forest. and The Forest, who gives us
F- Food, O- Oxygen(O2) , R - Rains, E- Environment protection
S-helps in Soil conservation  , T- Timber.
That's why we should protect the protectors!

वनदेवी हम पेड़ बालक कहते एक कहानी है ;
ये कोई  मनोरंजन नही जीवन की र'वानी है ;

शक्तिशाली  विधाता  ने  हमे बीजो  मे बसाया है ;
पानी मिट्टी वायू मिलते जग मे आना सिखाया है !



धरती माँ  के  आँचल मे हमने  जीवन सवारा है ;
प्राण वायू देने का अधीकार हमने हि स्वीकारा है ;

मानव से पहले धरती पर ईश ने हमको उतारा है;
वनदेवी हम पेड़ बालक परोपकार धर्म हमारा है !

वन उपवन गीरि ओर गाँवो को  हमने श्रंगारा है ;
सभ्यता की दोड़ मै भी मानव कर्जदार बेचारा है ;

वनदेवी मेँ कोन हुँ अबतक बस ये बतलाया है;
अब सुनो मेरी धरती माँ ने क्या क्या  मुझको सिखलाया है !


फल फुल ओर वायु देना धर्म मुझे समझाया है ;
मेने पत्थर  खाकर भी  इसको सदा निभाया है ;

सभ्य  होते  मानव  ने  घर बनाया  नाव  रची;
मेने  हर दम अपना तन देकर भी उसका साथ
निभाया है !


औषधी ओर सुगंध से मेने इस जग को हंसाया है;
पोधे  बनकर  खेतो  मे  मेने  अन्न  उगाया  है ;
भुखे पेट जब कोई आया तो फल का भोज कराया है !

अपनी लालच कि खातिर उसने मुझपर हथीयार
चलाया है;
चिख चिख कर मेँ रोया वनदेवी वो मेरी चिखे ना
सुन पाया है ;


मेरी धरती माँ ने भी फिर उसको मजा चखाया है;
बाढ़ भुकंप ओर जलजलौ से मेने उसे बचाया था!




बादलो  को भी  मेने  निमंत्रन  भिजवाया  था!
अब मे लाचार हुँ,वनदेवी अपने अपनो से परेशान हूँ!

क्या क्या सुनाऊ वनदेवी मेरी  आँखे भर आई;
मेरे भाई मानव ने क्या क्या मुझपर बिताई है!

अपने  कर्म को कैसे,  जीना  मै सिखलाता हूँ !
मानव को अब भी, मै सही मार्ग दिखलाता हूँ!

अब  भी उसके लिए  इश्वर से गुहार लगता हूँ !
वनदेवी मै पेड़ बालक अपनी व्यथा सुनाता हूँ!