dayra

Monday 19 September 2011

"मिट्टी की खुशबू " SPIRIT


ये  एक  पंछी  की  कहानी  है ,
जिसमे  पानी  ही  पानी  है ;













उसे चाहिए था  बसेरा ;
डालना  था  कही  डेरा  ...फ्रिर्र्र ...

सोया  ना  जागा दिन  भर  वो  भागा;
खोया  ना  पाया  कैसा  अभागा  ;
घर  बनाया  भी  तो  जहाज  पर ;
ना  मालूम  था  उसे  ये  रहता  नहीं  किनारों  पर ,

आज रात आराम फ़रमाया ,
स्वप्न   लोक  में  सेर  कर  आया
जब  जागा , होश  आया   तो ,
अपने  को  सागर  की  गोदी  में  पाया ;
ना  मिट्टी  थी  ना  था   पेड़ो  का  साया ;
ऊपर  सूरज  का  तेज, निचे  समंदर  की  काली  काया ;

बिना  दीवारों  के  पिंजरे  में  अपने  को  पाया
वतन  का  मतलब  अब  उसे  समझ  में  आया ;
करना  तो  थी  उसे  अब  सेर ;
अपना  ना  था  कोई  यहाँ  थे  सब  गैर ;

वो  बारिश   की  रातें  वो  नीम  की  छाया ;
धान  के  खेतों  से  कैसे  दाना  चुग  आया ;
वो  कलरव  मस्ताना   वो  चों   चो  के  झगडे ;
यादों  के  दौर  में  कुछ  दिन  है  गुजरे ;

अब  जहाज  लौटने  लगा 

लौटते  हुए  जहाज  से  जमी  दिखाई  दी ;
ख़ुशी  इतनी  थी  की  दुःख  में  कमी  दिखाई  दी ;
उड़ने  लगा  वो  तेज ,
स्वदेश  की  और  बड़ने  लगा  वो

आज  की  सुबह  की  अलग  ही  रवानी  थी;
सूरज  था  चमकीला ,पूर्वा दीवानी थी;

ओ जंगल सभाएं और चकवे की  कहानी;
ओ ऊँची उड़ाने ओ झरने का पानी;
अब तो कुछ अलग ही स्वाद था !
उन खट्टे अंगूरों का .....मिल गया था  उसको 



वही  मिट्टी की  खुशबू  वही पेड़ो का  साया ;
वतन  का  मतलब  उसे  समझ  में  आया !

आखिर आ ही गया ना .....हाँ हाँ हाँ

4 comments: